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कविता

गत्ते की गाँठ

राहुल कुमार ‘देवव्रत’


मेरी देह के अवयव एक से नहीं

इन दिनों...
बोध के पहाड़ों का ठोस ठहराव
ढहकर बह जाना चाहता है
कतरा-कतरा टूटकर
मिल जाना चाहता है नदी की कलकल में

किंतु तलछट की काई उपटकर
पानी के साथ बह रही है ...इन दिनों

रोज रात मेरे पैताने बैठ
तुम जो मुझे यूँ घूरते रहते हो...
क्या मेरे जेहन से तत्व चुराने आए हो ?

आत्मा का रंग इन दिनों नीला पड़ा है

ख्वाब में तना शामियाना
छानकर गिराता रहता है किरणों का ढेर
कि ज्यों खपरैल से गिरती रहती है रोशनी

कहा था...
कि पूरे सौरमंडल की यात्रा करनी थी तुम्हें मेरे साथ
एक-एक चीज छूकर देखनी थी... खुद से

एक मैं ही हतभागी तो नहीं

अक्षरों की पिटती लकीर के साक्षी हैं...
ये दरख्त, हवा, पानी, धूल, किरणें, रोशनी
बताया मुझे
कि तुम्हें कहीं जाना तो था ही नहीं

सुनो !
मुझे वक्त की बरबाद खेती समेटनी है
कि हाट अब अपने अंतिम पड़ाव पर
करवट लेता चाहता है

मेरी नज्म !
मैं अब अपने घर लौटना चाहता हूँ


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